भारत के पटाखों के बाद अब उनकी औषधियों की साख भी खतरे में पड़ गई है। क्या हमारे दवा निर्माता सलेम स्तर की उचित मानक दवा बनाने की क्षमता नहीं रखते हैं? पिछले दिनों भारत में निर्मित कफ सिरप से विदेश में बच्चों की मौत हो गई। ऐसी ही नकली खांसी की दवा बनाने वाली कंपनी पर कार्रवाई भी की गई। कौन सी दवा निर्माता अपने उत्पादों का परीक्षण करते हुए उन्हें एक्सपोर्ट कर देते हैं? ऐसी विविधता क्यों होती है? किसी भी छोटी-मोटी कंपनी में लापरवाही हो जाए तो बात अलग है लेकिन जब देश की नामी कंपनी की दवा घाटियां साबित होती हैं तो चिंता होना स्वाभाविक है। ऐसे में हमारे वे नेता क्या जवाब देना चाहते हैं जो भारत के विश्वगुरु और दुनिया की सबसे बड़ी फार्मेसी के कर्मचारी नहीं हैं। वे भले ही खुद की पीठ थपथपा लें लेकिन स्टाइक छुप नहीं सकता। हमारी कंपनी को अमेरिका के बाजार से अपने घटिया या घटिया स्तर के लोगों की तलाश है। इस देश के लिए क्या शर्मनाक स्थिति नहीं है?
दर्जे पर ध्यान क्यों नहीं
पिछले कुछ सालों से भारत में सस्ते और असरदार नुस्खों वाली जेनेरिक औषधियों या जनऔषधि का बड़ा गुणगान हो रहा है। जेनेरिक औषधियों का मतलब यह है कि किसी ब्रांडेड दवा के फार्मूले के आधार पर दूसरी दवा बनाई जाए। इसमें कम लागत आती है। भारत जेनेरिक औषधियों का सबसे बड़ा निर्माता और कलाकार है। ऐसी स्थिति में ये सूखा सूखा देश में संयुक्त होन या भागीदार की, उनका गुणवत्तापूर्ण नियंत्रण या गुणवत्ता परीक्षण-नियंत्रण सही होना चाहिए। जरा सी भी गलत देश का नाम बता सकते हैं।
डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज, सन फार्मा और अरबिंदो फार्मा भारत की दिग्गज फार्मास्यूटिकल्स कंपनियां हैं। इन दवाओं की रिपोर्टिंग में खामी पाए जाने पर इन्हें अमेरिका से रिकाल करने या वापस अपलोड करने की नौबत आ गई। अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने भारत से आने वाली दवाओं की गुणवत्ता और सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंता का विषय है। इन दवाओं की वापसी (रिकल्स) को क्लास-1 और क्लास-2 के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
नामी कॉलेज की साख दांव पर
डॉक्टर रेड्डी लेबो टॉयलेटरीज़ जावीगटोर (सैप्रोप्टेरिन हाइड्रोक्लोराइड) के 20,000 को वापस बुलाया जा रहा है। यह दवा कम असरदार पाई गई। एफडीसी होने लिमिटेड काला मोतिया (ग्लूकोमा) के इलाज में उपयोग की जाने वाली आई-ड्रॉप टिमोलोल मैलेट ऑप्थेल्मिक सॉल्यूशन की 3,80,000 से अधिक यूनिट वापस ले रही है। अरबो दवा तनाव कम करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली क्लोराजेपेट डिपोपटेशियम टैबलेट की 13,000 से अधिक बोतलें वापस मंगाई जा रही हैं। सैन मेडिसिन कंपनी एंटीफंगल दवा एम्फोटेरिसिन बी लिप्सिओग की 11,000 से ज्यादा शीशियां वापस ले जा रही है। सनफार्मा के इंजेक्शन की गुणवत्ता भी सही नहीं बताई गई।
फिर आयुर्वेद को चुनौती क्यों?
पिछले दिनों आयुर्वेदिक के लड़ाकू एलोपैथिक दवाओं और चिकित्सा पद्धति को बताने में सक्षम हुए बाबा रामदेव के पतंजलि को निशाने पर लिया गया था, लेकिन अब यह बात सामने आई है कि एलोपैथिक दवाएं भी घटिया साबित होती हैं और उन्हें विदेश से वापस मनाने पर बाध्य होना पड़ता है। है। क्या एलोपैथिक दवा निर्माता कंपनियां अपने उत्पाद की गुणवत्ता या दर्जे की छाती पर हाथ रखकर चल सकती हैं? यदि नहीं तो आयुर्वेदिक दवाओं की आलोचना क्यों करती हैं?