क्या मासिक धर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया आज भी कलंक समझी जाती है?
कपड़े उतारो, जांच करनी है”—एक झकझोर देने वाला पल

जागरुक मुंबई न्यूज़। “मासिक धर्म नहीं, मानसिक उत्पीड़न था यह”
शाहपुर स्कूल कांड: जब बच्चियाँ बनीं व्यवस्थाओं की लापरवाही का शिकार
शाहपुर, महाराष्ट्र: क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक सरकारी या निजी स्कूल में बच्चियों को उनके मासिक धर्म पर संदेह के आधार पर कपड़े उतारने को मजबूर किया जाए? यह 1950 के दशक की बात नहीं है — यह घटना है 2025 की। और यह हुई है महाराष्ट्र के ठाणे जिले के शाहपुर क्षेत्र के एक स्कूल में, जहाँ शिक्षा की जगह शर्म और उत्पीड़न ने घर कर लिया।
“कपड़े उतारो, जांच करनी है”—एक झकझोर देने वाला पल
एक सामान्य दिन था, जब कक्षा 5वीं से 10वीं तक की छात्राएँ स्कूल पहुँचीं। दिनचर्या जैसी ही चल रही थी, लेकिन तभी एक खून का धब्बा शौचालय में देखा गया। बस, यहीं से शुरू हुई एक शर्मनाक प्रक्रिया — न सिर्फ शिक्षकीय जिम्मेदारी का उल्लंघन, बल्कि नारी गरिमा पर सीधा हमला।
बिना महिला डॉक्टर या काउंसलर की मौजूदगी के, स्कूल स्टाफ ने बच्चियों से मासिक धर्म की स्थिति के बारे में पूछताछ शुरू की और कुछ को कथित रूप से अपने अंडरवियर उतारने को मजबूर किया गया। बच्चियाँ डरी हुई थीं, रो रही थीं, पर शायद उन्हें खुद समझ नहीं आया कि उनके साथ क्या हो रहा है।
❖ जब शिक्षा अपमान में बदल गई शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताबों से ज्ञान नहीं है, बल्कि बच्चों को सुरक्षित और सम्मानजनक माहौल देना भी उसकी जिम्मेदारी है। शाहपुर स्कूल ने इस ज़िम्मेदारी को न सिर्फ नकारा, बल्कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर स्थायी असर डालने वाली घटना को अंजाम दिया।
❖ पाँच गिरफ्तार, फिर भी सवाल बाकी पुलिस ने स्कूल की प्रधानाचार्य सहित पाँच लोगों को गिरफ्तार किया है। आठ के खिलाफ मामला दर्ज है, और ट्रस्टियों पर सवालों की बौछार है। लेकिन यह केवल क़ानूनी कार्रवाई नहीं, एक सामाजिक जागरूकता की भी माँग करता है। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष रूपाली चाकनकर ने घटनास्थल का दौरा कर शिक्षा विभाग को निर्देश दिए कि स्कूल की मान्यता रद्द की जाए, लेकिन छात्राओं की पढ़ाई प्रभावित न हो। यह सराहनीय है, पर सवाल यह है —
क्या यही सतर्कता पहले नहीं दिखाई जा सकती थी?
❖ रजिस्टरों में ‘सखी सावित्री समिति’, ज़मीन पर गायब स्कूल में “सखी सावित्री समिति” और शिकायत निवारण समिति जैसी आवश्यक सुरक्षा व्यवस्थाएँ या तो कागज़ों तक सीमित थीं या बिल्कुल सक्रिय नहीं थीं। यह शिक्षा विभाग की लापरवाही और निरीक्षण तंत्र की असफलता का जीता-जागता प्रमाण है।
अगर आज हमारी बेटियाँ स्कूल में सुरक्षित नहीं हैं, तो हम उन्हें कहाँ भेजें?
क्या हमारी बच्चियों की मासूमियत, उनके शरीर की गरिमा से ज़्यादा ज़रूरी स्कूल की इमेज है? क्या मासिक धर्म जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया आज भी कलंक समझी जाती है?
स्कूलों में संवेदनशीलता की ट्रेनिंग अनिवार्य होनी चाहिए।हर स्कूल में महिला स्वास्थ्य शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। सभी स्कूलों में स्वतंत्र शिकायत और काउंसलिंग इकाइयाँ सक्रिय रूप से कार्य करें। जिन स्कूलों में ऐसी घटनाएँ होती हैं, उन्हें कड़ी सज़ा और निगरानी के दायरे में लाया जाए।
❖ अंत में एक कड़वा सच जिस देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा दिया जाता है, वहाँ बेटियाँ स्कूल में अपने शरीर की इज़्ज़त के लिए लड़ रही हैं। यह सिर्फ एक स्कूल की घटना नहीं है — यह चेतावनी है, कि अगर अब भी हम नहीं जागे, तो कल शायद और भी कई बच्चियाँ “शिक्षा” की आड़ में “अपमान” झेलती रहेंगी।
“जहाँ सवाल उठते हैं, वहीं बदलाव शुरू होता है।”




